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लेखनी कहानी -10-Apr-2023 अर्जुन की पत्नियां और पुत्र

सामान्यत: लोग जानते हैं कि अर्जुन की दो पत्नियां थीं । एक द्रोपदी और दूसरी सुभद्रा । कम ही लोगों को पता है कि अर्जुन की और भी पत्नियां थीं । आइये, आज हम अर्जुन की पत्नियों और उसके पुत्रों के बारे में जानते हैं । 

द्रोपदी के स्वयंवर के पश्चात जब भीम और अर्जुन द्रोपदी को लेकर घर आये तब भीम ने कहा "माता, हम भिक्षा लाए हैं" 
माता कुंती घर के अंदर कुछ कार्य कर रही थीं इसलिए बिना देखे ही उन्होंने कहा दिया कि पांचों भाई मिलकर बांट लो" । मां को जब ज्ञात हुआ कि द्रोपदी को लेकर आये हैं तब अपने वचन के पालन और धर्म सम्मत आचरण करने के संबंध में कुंती ने धर्मराज युधिष्ठिर से इसका समाधान ढूंढने को कहा । 

द्रोपदी सौन्दर्य में अद्वितीय स्त्री थी । उसके तन से नीले कमलों की सुगंध आती थी जो लगभग तीन किलोमीटर की परिधि में फैली रहती थी । द्रोपदी के सौन्दर्य में पांचों भाई निमग्न हो गये और पांचों ही कामातिरेक से भर गये । युधिष्ठिर ने अपने भाइयों की मन: स्थिति जान ली लेकिन वे चूंकि धर्म के अवतार थे इसलिए धर्मानुकूल निर्णय ही कर सकते थे । उन्होंने कहा "स्वयंवर की शर्त को अर्जुन ने पूरा किया है इसलिए द्रोपदी नियमानुसार अर्जुन की पत्नी हैं । अतः: उन्होंने अर्जुन को उससे विधि सम्मत विवाह करने की अनुमति प्रदान कर दी । 

अर्जुन एक धर्मानुकूल आचरण करने वाला अनुज था इसलिए उसने कहा "तात ! आप और मध्यम भ्राता अभी अविवाहित हैं इसलिए मेरा विवाह करना शास्त्रानुकूल नहीं है । अतः: मैं विवाह नहीं कर सकता हूं । मेरा निवेदन है कि द्रोपदी से आप विवाह कर लें"। 

इस उत्तर के पश्चात युधिष्ठिर सोच में पड़ गये । क्या यह संभव है ? क्षत्रियों में अपने भ्राता के लिए किसी राजकुमारी को विजित कर लाना और उससे विवाह करना एक सामान्य परंपरा थी । स्वयं भीष्म पितामह अपने अनुज विचित्र वीर्य के लिए काशीराज की तीन कन्याओं को विजित कर लाये थे जिनमें से अंबिका और अम्बालिका का विवाह विचित्र वीर्य से क्या दिया था । माद्री को भी भीष्म पाण्डु के लिए लाए थे । अतः इस दृष्टि से युधिष्ठिर को द्रोपदी से विवाह करने में कोई समस्या नहीं थी । किन्तु युधिष्ठिर ने अपने सहित सभी भ्राताओं का अनुराग द्रोपदी में देख लिया था इसलिए पांचों का विवाह द्रोपदी से करना ही एकमात्र विकल्प था । इससे माता के वचन का पालन भी हो रहा था लेकिन इसके लिए द्रोपदी की सहमति आवश्यक थी । 

द्रोपदी उन पांचों विलक्षण भाइयों को देखकर उन सभी पर आसक्त हो गई । युधिष्ठिर ने जब द्रोपदी से पांचों भाइयों से विवाह के बारे में अपनी राय व्यक्त करने के लिए कहा तो उसने इस पर अपनी मौन सहमति दे दी । इस तरह द्रोपदी का विवाह पांचों भाइयों के साथ हुआ । महाभारत में यही लिखा हुआ है । इसके अतिरिक्त जो भी पढ़ने सुनने में आया है वह कपोल कल्पित है । 

द्रोपदी से विवाह करने के पश्चात पाण्डव हस्तिनापुर लौट आये । कौरवों और पांडवों में युद्ध को टालने के लिए भीष्म पितामह ने धृतराष्ट्र को राज्य के विभाजन की सलाह दी जिसे द्रोणाचार्य और महामंत्री विदुर ने उचित बताया । इस प्रकार धृतराष्ट्र ने अपने राज्य का बंटवारा करने का निश्चय कर लिया । चूंकि धृतराष्ट्र बहुत लोभी, लालची, स्वार्थी, कुटिल और कुबुद्धि था इसलिए उसने पक्षपात करते हुए खाण्डव प्रस्थ का राज्य जो केवल वन प्रदेश था, पाण्डवों को दे दिया । पाण्डवों ने अपने परिश्रम से उसे सरसब्ज बना दिया और अपनी राजधानी इन्द्र प्रस्थ बनाई जो आजकल दिल्ली कहलाती है । 

इन्द्र प्रस्थ में पाण्डव आराम से रह रहे थे कि एक नारद मुनि वहां आये । युधिष्ठिर ने उनका यथोचित आदर सत्कार किया । नारद जी ने सुन्द, उपसुन्द दोनों भाइयों की कथा सुनाते हुए कहा " है धर्मराज, द्रोपदी अति सुन्दर स्त्री है । वह आप सभी पांचों भाइयों की पत्नी है । कहीं ऐसा ना हो कि उसे लेकर तुम पांचों भाइयों में वैसा ही झगड़ा न हो जाए जैसा सुंद और उपसुंद दोनों भाइयों में हुआ था इसलिए हे राजन! कोई ऐसा नियम बनाओ जिससे तुम भाइयों में कभी कोई मनमुटाव नहीं हो" । 

तब युधिष्ठिर ने नारद मुनि से आग्रह किया कि वे ही कोई नियम बना दें । तब महामुनि नारद ने यह नियम बनाया कि एक एक वर्ष द्रोपदी प्रत्येक भाई के रनिवास में रहेगी । इस अवधि में अगर कोई भाई उनके महल में चाहें ग़लती से ही क्यों न आ जाये, उसे बारह वर्ष तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए वन में रहना होगा । इसके पश्चात पांचों भाई इसी नियम का पालन करने लगे । 

सबसे पहले द्रोपदी युधिष्ठिर के रनिवास में एक वर्ष रही । युधिष्ठिर से उसे एक पुत्र जिसका नाम प्रतिविन्ध्य था, हुआ । उसके पश्चात वह एक वर्ष भीम के महल में रही । उससे उसे सुतसोम नामक पुत्र की प्राप्ति हुई । इसके बाद वह एक वर्ष अर्जुन के महल में रही जिससे उसे श्रुतकर्मा नामक पुत्र मिला । तत्पश्चात वह एक वर्ष नकुल के साथ रही जिससे शतानीक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ और फिर वह एक वर्ष सहदेव के साथ रही जिससे श्रुतसेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था । वह इसी प्रकार बारी बारी से पाण्डवों के महल में रहती थी । 

एक बार की बात है कि द्रोपदी युधिष्ठिर के रनिवास में थी । अचानक कुछ चोर एक ब्राह्मण की गायें चुराकर भाग गये । तब उस ब्राह्मण ने अर्जुन के समक्ष गुहार लगाई "है पार्थ! तुम्हारे रहते चोरों की इतनी हिम्मत कैसे हो गई कि वे एक ब्राह्मण की गायों को हरकर ले गये । यह घटना धर्म परायण महाराज युधिष्ठिर के राज्य पर एक कलंक है । अतः आप शीघ्र उन चोरों को उचित दंड देकर मेरी गायें वापस दिलवायें" । 

यह समाचार सुनकर अर्जुन को अत्यंत क्रोध आ गया और वह चोरों को पकड़ कर समुचित दंड देने के लिए तैयार हो गया । लेकिन उसके अस्त्र-शस्त्र द्रोपदी के महल में थे और उस समय द्रोपदी के महल में सम्राट युधिष्ठिर"विहार" कर रहे थे । अर्जुन धर्म संकट में फंस गया । एक तरफ कर्तव्य था तो दूसरी तरफ नियम था । उसने कर्तव्य को अधिक महत्व दिया और वह द्रोपदी के महल में क्षमायाचना करते हुए चला गया । अस्त्र-शस्त्र लेकर वह उन चोरों के पीछे दौड़ पड़ा । उन्हें समुचित दंड देकर ब्राह्मण देवता को उसकी गायें लौटाकर वह युधिष्ठिर के समक्ष नतमस्तक होकर खड़ा हो गया और हाथ जोड़कर कहने लगा 
"हे धर्मज्ञ सम्राट भ्राता ! मैंने नियम भंग किया है इसलिए मुझे 12 वर्ष वन में रहने की अनुमति दीजिए" 

तब धर्मज्ञ युधिष्ठिर ने अर्जुन को भली-भांति समझाने का प्रयास किया कि उसने यह कृत्य सायास नहीं किया है बल्कि यह कृत्य परिस्थिति वश किया गया है इसलिए इस पर वह नियम लागू नहीं होता है । किन्तु अर्जुन नहीं माना । तब युधिष्ठिर ने कहा "हे अर्जुन! तुम मेरे अनुज हो और मेरे साथ होने के कारण द्रोपदी उस समय तुम्हारी भाभी थी । अतः भाभी के कक्ष में देवर को जाने की अनुमति है किन्तु ज्येष्ठ को नहीं है । अतः समाज के इस नियम के अनुसार तुम्हारा वह कृत्य भी उचित ही था इसलिए तुम्हें वन गमन करने की आवश्यकता नहीं है" । 

अर्जुन ने कोई बात नहीं सुनी और वह वन गमन की अनुमति के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ रहा । तब युधिष्ठिर ने उसे वन गमन की अनुमति दे दी । 

अर्जुन वन में विचरण करते हुए हरिद्वार पहुंचा । वहां पर उसने गंगा जी में डुबकी लगाई । उसी समय नाग वंशीय राजकुमारी उलूपी गंगा में जल के अंदर विहार कर रही थी । उसने जल के अंदर अर्जुन को देखा तो वह उस पर मोहित हो गई । काम के अधीन होने के कारण उसने अर्जुन से प्रणय निवेदन किया । अर्जुन ने कहा कि वह 12 वर्षों तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करेगा । तब उलूपी ने कहा कि उसने कोई अपराध नहीं किया है इसलिए उसे ब्रह्मचर्य व्रत के पालन की आवश्यकता नहीं है । तब अर्जुन ने कहा कि यदि ऐसा भी है तो भी वह विवाह उपरांत ही "रति दान" दे सकता है और वह केवल एक रात्रि ही उसके साथ रह सकता है । उलूपी ने कहा कि उसे अर्जुन का केवल एक रात्रि का साहचर्य भी स्वीकार है और शेष जीवन वह अपने पुत्र के साथ ही व्यतीत करने को तैयार है । तब अर्जुन और उलूपी का विवाह हुआ और एक रात अर्जुन उलूपी के साथ रहा । इस संसर्ग से उलूपी को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई । उसका नाम इरावान था जिसने पांडवों के पक्ष में युद्ध किया था । 

अगले दिन अर्जुन वहां से चल दिया और पूर्व दिशा में वन भ्रमण करता रहा । चलते चलते वह मणिपुर पहुंच गया । वह वनवासी के वेष में विचरण कर रहा था । उसी समय मणिपुर राज्य की राजकुमारी चित्रांगदा सैर को निकली । अर्जुन ने चित्रांगदा को देखा और वह उसके सौन्दर्य पर रीझ गया । काम ज्वर से पीड़ित अर्जुन चित्रांगदा का हाथ मांगने के लिए राजा के समक्ष उपस्थित हो गया और अपना परिचय देकर उसने चित्रांगदा से विवाह करने की इच्छा प्रकट की । अर्जुन जैसे व्यक्ति से विवाह करके कौन व्यक्ति स्वयं को धन्य नहीं समझेगा । किन्तु राजा ने एक शर्त रखते हुए कहा "है वीर शिरोमणि अर्जुन! मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि तुम मेरी पुत्री चित्रांगदा से विवाह करना चाहते हो । पर एक समस्या है । हमारे पूर्वजों ने कठोर तप किया था पुत्र प्राप्ति के लिए तब उन्हें एक सन्तान उत्पन्न होने का वरदान मिला गया था । उस वरदान से अब तक हमारे कुल में एक पुत्र उत्पन्न होता रहा था लेकिन मुझे पुत्र के बजाय पुत्री मिली । इसलिए हे कुन्ती नंदन ! तुम्हें मेरी पुत्री से यदि विवाह करना है तो तुम्हें यहां पर तब तक रहना होगा जब तक उसे पुत्र नहीं मिल जावे और वह पुत्र इस राज्य का उत्तराधिकारी होगा इसलिए उसे यहीं पर छोड़ना होगा । अगर यह शर्त स्वीकार हो तो ही विवाह हो सकता है अन्यथा नहीं । अर्जुन ने वह शर्त स्वीकार कर ली और उसका विवाह चित्रांगदा से हो गया । वह वहां पर तीन वर्षों तक रहा तब चित्रांगदा को बभ्रूवाहन नामक पुत्र की प्राप्ति हुई । इसके पश्चात अर्जुन वहां से चल दिया । 

चलते चलते अर्जुन प्रभास पट्टन क्षेत्र में आ गया । यह क्षेत्र उस समय यादव वंशी राजा उग्रसेन के अधीन था जिसकी रक्षा भगवान श्रीकृष्ण करते थे । श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव की दो पत्नियां थीं । एक रोहिणी और दूसरी देवकी । देवकी कंस की बहन थी इसलिए बाकी कहानी सबको पता है, उसे यहां नहीं दोहराऊंगा । देवकी के जब सातवां गर्भ लगा तब उसे कंस से बचाने के लिए भगवान ने लीला रची । उस गर्भ को देवकी के गर्भ से निकाल कर वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित कर दिया । यह प्रक्रिया "संकर्षण" कहलाती है । वह बालक बलराम के नाम से प्रसिद्ध हुआ । उनका दूसरा नाम संकर्षण भी है । रोहिणी की एक पुत्री हुई जिसका नाम सुभद्रा था जो अतीव रूपवती और गुणवान थी । 

अर्जुन ने सुभद्रा को देखा और वह उस मोहित हो गया । भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन की आंखों में सुभद्रा के लिए प्रेम देख लिया था इसलिए भगवान ने अर्जुन को सुभद्रा का अपहरण करने का सुझाव दिया । इस प्रकार अर्जुन ने सुभद्रा का अपहरण भगवान श्रीकृष्ण की सहमति से किया और उससे विवाह किया । सुभद्रा से अभिमन्यु पैदा हुआ । 

इस प्रकार अर्जुन की चार पत्नियां थीं और उनसे चार ही पुत्र उत्पन्न हुए । 

श्री हरि
10.4.230


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3 Comments

KALPANA SINHA

03-Jul-2023 01:53 PM

well done

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अदिति झा

16-Apr-2023 08:49 AM

Nice

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बहुत खूब

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